भारत-विभूति - 2 / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
सब-भूत-हित की विभूति विलसी है कहाँ,
विश्व-बंधुता की निधि किसकी बही में है;
मानवता कहाँ है कुसुम-कलिका-सी खिली;
दिव्यता कहाँ के कवि-कुल की कही में है।
'हरिऔधा' आलोकित लोक? किससे है हुआ,
सुरपुर-सत्ता बसी किसकी सही में है;
भुवन-विमोहिनी महान मंजुता है कहाँ,
भारत ही मंजुतम मंजुल मही में है।
सारी वसुधा में है बगारती विमल मति,
पाहन-समूह में है प्रतिभा पसारती;
वारिधार-सदृश विवेक-वारि बरसा के
भूतल में स्वर्गिक विभूति है उतारती।
'हरिऔधा' भावना सुधारती है भावुक की,
मानस में पूत भूत भाव है उभारती;
भरत कुमार भूति भारती की मूल भूत
भारतीयता से भरी भारत की भारती।
आया क्यों धारा में, क्यों कहाया भारतीय जन,
भूत जो भगाया नहीं भारभूत पापी का;
पूज-पूज सुर-वृंद कौन-सी विभूति पाई,
बल जो बिलाया नहीं प्रबल प्रलापी का।
'हरिऔधा' कैसे तो सपूती न कपूती होती,
न गया मिटाया जो प्रमाद आपाधापी का;
देश परितापी को तपाया जो न दे-दे ताप,
पाया जो न पौरुष प्रताप से प्रतापी का।
भारतीय भारती तो आरती उतारती क्यों,
भारत-धारा की धीरता में जो न सनते;
कैसे जन करता यजन कर गुण-गान,
जन्मभूमि वैरियों की जड़ जो न खनते।
'हरिऔधा' कैसे देवी-देवता तो देते मान,
तन वारि सुयश-वितान जो न तनते;
जय बोल-बोल जाति बलि-बलि जाती कैसे,
जो न बलि-वेदी के प्रताप बलि बनते।