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भारत- 2001 / रविकान्त
Kavita Kosh से
पहले मैं सुनता था
पर मानता नहीं था
फिर बहुत अधिक सुनने लगा
तब दुःख हुआ
पर जब मैंने अपने परिचितों को आतंकित देखा
तब मैं डरने लगा
अब जबकि मेरे बहुत ही करीबियों के साथ
यह बात हो चुकी है
मैं
हर हुच्-हुच् या उँग-उँग की आवाज से
बुरी तरह काँप जाता हूँ
कि कहीं
बगल के कमरे में, आँगन में, या कि
आगे की ओर बरामदे में
किसी का गला तो नहीं रेता जा रहा है!
यह ऊँ-हुच की खसखसी आवाज
माँ की तो नहीं है न, न पिता की
भाई या बहनों में से तो कोई
नहीं ही होगा यह!
और दिन के दो बजे
मेज से उठकर
डोल आता हूँ मैं
घर-भर में