भारत के नवयुवक / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
जाति-धान, प्रिय नव-युवक-समूह,
विमल मानस के मंजु मराल;
देश के परम मनोरम रत्न,
ललित भारत-ललना के लाल।
लोक की लाखों आँखें आज
लगी हैं तुम लोगों की ओर;
भरी उनमें है करुणा भूरि,
लालसामय है ललकित कोर।
उठो, लो आँखें अपनी खोल,
बिलोको अवनी-तल का हाल;
अनालोकित में भर आलोक,
करो कमनीय कलंकित भाल।
भरे उर में जो अभिनव ओज,
सुना दो वह सुंदर झनकार;
ध्वनित हो जिससे मानस-यंत्र,
छेड़ दो उस तंत्री का तार।
रगों में बिजली जावे दौड़,
जगे भारत-भूतल का भाग;
प्रभावित धु न से हो भरपूर,
उमग गाओ वह रोचक राग।
हो सके जिससे सुगठित जाति,
सुकंठों में गूँजे वह तान;
भाव जिसमें हों भरे सजीव,
करो ऐसे गीतों का गान।
कर विपुल-साहस वज्र-प्रहार
विफलता-गिरि को कर दो चूर;
जगा दो सफल साधना-ज्योति,
विविध बाधा-तम कर दो दूर।
गगन में जा, भूतल में घूम,
निकालो कार्य-सिध्दि की राह;
अचल को विचलित कर दो भूरि,
रोक दो वारिधि-वारि-प्रवाह।
धूल में क्यों मिलती है धाक,
बचा लो बची-बचाई आन;
मचा दो दोष-दलन की धूम,
मसल दो दुख को मशक-समान।
लाभ-हित देश-प्रेम-रवि-ज्योति
आँख लो निज भावों की खोल;
त्याग करके निजता-अभिमान,
जाति-ममता का समझो मोल।
देश के हित निज-जाति-निमित्त
अतुल हो तुम लोगों का त्याग,
अवनि-जन-अनुरंजन के हेतु
बनो तुम मूर्तिमान अनुराग।
अनाथों के कहलाओ नाथ,
हरो अबला जन-दुख अविलंब;
सबलता करो जाति को दान
अबल जन के होकर अवलंब।
बनो असहायों के सर्वस्व,
अबुधा जन की अनुपम अनुभूति;
वृध्द जन के लोचन की ज्योति,
अकिंचन जन की विुपल विभूति।
सरस रुचि रुचिर कंठ के हार,
सुजीवन-नव- घन-मत्त-मयूर;
लोक-भावुकता तन-शृंगार,
सुजनता-भव्य- भाल-सिंदूर।
भरो भूतल में कीर्ति-कलाप
दिखा भारत-जननी से प्यार;
करो पूजन उनका पद-कंज
बना सुरभित सुमनों का हार।