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भारत के शहनशाहों में एक ऐसा बशर था / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'

भारत के शहनशाहों में एक ऐसा बशर था
शाइर था, सुख़नवर था, मुज़फ़्फ़र था, जफ़र था

दूरी भी रही और नहीं दूर रहे हम
ये साथ गुज़ारे हुए लम्हों का असर था

आधा ही छुपा रक्खा था चेहरा भी किसी ने
वो रात भी आधी ही थी आधा ही क़मर था

अच्छा ही हुआ धूप निकल आई बला की
अश्कों से मेरा दामने-दिल दोस्तो तर था

उम्मीद थी ख़ैरात की मुफ़लिस को जहां से
मालूम हुआ उसका भी फ़ाक़ों पे गुज़र था

कोई भी न थी नामा-ए-आमाल में नेकी
नेकी की जगह खाना-ए-नेकी में सिफ़र था

इक बात बता मुझको 'रक़ीब' आज ख़ुदारा
क्या दिल में तिरे भी कई असनाम का घर था