भारत कॉफी हाउस / विजय कुमार
तीन सड़कों के मुहाने पर
पीला हाउस के एक पुराने रेस्त्रां में
कोने की एक टेबल
जहां से दिखती हैं दो सड़कें
ज्यूक बॉक्स पर तलत की आवाज़
शामे गम की कसम
मुझे नहीं मालूम मैं नींद में हूं
मुझे नहीं मालूम मैं जगा हुआ हूं
बाहर सड़क पर धूप में दो अधेड़ वेश्याएं पुती हुई
बाहर सड़क पर एक दलाल टोह में
कुछ सूखे पत्ते
एक गोदाम का गिरा हुआ शटर
एक पुलिस जीप में
दो ऊंघते हवलदारों की नींद में
फैले हैं चिड़ियों के कलरव से भरे आकाश
मैं इस अरूप शोर में डुबो देना चाहता हूं
चाय के गिलास में
इस दुनिया की तमाम आवाज़ों को
मैं योजनाओं से उबर आना चाहता हूं
मेरी इन अधूरी सी कविताओं में क्या कोई छंद बचा हुआ है
जिसमें छिपा लूं ये छायाएं कुछ स्पर्श
कुछ स्मृतियां पश्चाताप कुछ दिवास्वप्न
रचूं एक ढलती दोपहर के सारे रह्स्य
मैं कुछ अनकही वेदनाओं की एक सूची बनाना चाहता हूं
मैं
एक बदनाम बस्ती में
मैं एक महान कवि की कविता की फटी हुई पतली सी किताब
झोले से निकालता हूं
मक्खियों से भिनभिनाते टेबल पर उसे रखता हूं
मैं उसके हाशिये पर कुछ लिखना चाहता हूं
लेकिन शब्द कहाँ हैं ?
कहाँ हैं शब्द ?
तभी सुराखों वाली बनियान में वह छोकरा
आकर टेबल पर पोंछा लगाता है
महान कवि की फटी हुई किताब से कुछ पन्ने
नीचे गिर जाते हैं वह हंसता है एक बचपन की हंसी
दीवार पर सांईबाबा की तस्वीर के पास
एक पुराना स्विच बोर्ड
जिसके तार टूटे हुए हैं
आवाज़ करता एक पंखा
जिसमें हवा बहुत कम है
कांच पर दिखती हैं कुछ छायाएं
कुछ इशारे
और कुछ भी नहीं
मेरी बुदबुदाहट का क्या कोई अर्थ है ?
मैं पूछता हूं यहां
इस धूल और रक्त और आंसू और पावडर और
पेशाब की मिलीजुली गंध वाली किसी जगह में
यह कौन सा समय है मेरा ?
मेरी बुदबुदाहट का क्या कोई अर्थ है?
मैं किसी समय में नहीं मैं पूछता हूं महान कवि की
किताब के फटे हुए पन्नों से
सुराखों वाली बनियान में वह छोकरा हंसता है
हंसता है वही मैले दांतों वाली हंसी
यह जगह जहां हर कोई
खुद से ही बातें करता रहता है
और कोई उसे टोकता भी नहीं
क्या मेरा होना इतना ही है
मैं पूछता हूं बार बार
बार बार हंसता है
सुराखों वाली बनियान में वह छोकरा
आंखें खुल जाने के पहले
इस तरह
एक नींद में ही उठकर मैं
बाहर चला आता हूं
मैं जो आया था यहां
एक पुराने ढब के गाने को सुनने
एक गंदी बस्ती के पुराने रेस्त्रां में