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भारी / प्रशान्त कुमार
Kavita Kosh से
हमेशा
भारी-भारी लम्हो पर
एक नन्हा पल
ज़्यादा भारी पड़ जाता है
जैसे घुप्प अँधेरी रातों पर
एक जुगनू
भारी पड़ जाता है
दमघोटूँ सन्नाटों पर
एक साँस
भारी पड़ जाती है
सूख गए एक वृक्ष पर
एक हरी पत्ती
भारी पड़ जाती है
मैली-कुचली इस काया पर
एक उजला आँसू
भारी पड़ जाता है ।