Last modified on 5 जुलाई 2010, at 17:14

भावना का वृक्ष अब निष्पात है / मनोज श्रीवास्तव


भावना का वृक्ष अब निष्पात है

मेरे गीतों में यही अनुताप है
धुंए की वह छोर क्यों अज्ञात है

धड़कनें दिल की यहाँ पुरजोर हैं
शहर का यह शोर भी पर्याप्त है

मिट्टियों के ज़हर से फसलें पकीं
ज़िंदगी में मौत का परिपाक है

सूर्य पाला से पड़ा बीमार है
धूप आंगन में पड़ी कृशगात है

अपने गुर्गे पल रहे परदेस में
हादसों का हो रहा आयात है

मौसमों की हो गई कायापलट
भावना का वृक्ष अब निष्पात है