भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भावना तुमने उभारी थी कभी मेरी, इसे भूला नहीं मैं / हरिवंशराय बच्चन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भावना तुमने उभारी थी कभी मेरी, इसे भूला नहीं मैं।
आज मैं यह सोचता हूँ क्या तुम्हारी
आँख में था, हाथ में था,
क्या कहूँ इसके सिवा बस एक जादू--
सा तुम्हारे साथ में था,
टूट वह कब का चुका, जड़ सत्य जग का
सामने भी आ चुका है,
भावना तुमने उभारी थी कभी मेरी, इसे भूला नहीं मैं।

बैठ कितनी बार हमने क्रांति, कविता,
कामिनी की बात की थी,
और कितनी रात को हमने सुबह की
औ’ सुबह को रात की थी,
एक दिन मेरा पता जो था, तुम्हारा
भी वह तो था ठिकाना,
वक़्त लेकिन आ गया है आज ऐसा हो कहीं तुम, हूँ कहीं मैं।
भावना तुमने उभारी थी कभी मेरी, इसे भूला नहीं मैं।