भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भावना विकलाँग होकर जी रही है / विनोद तिवारी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


भावना विकलाँग हो कर जी रही है
और कुछ हमदर्द हैं बैसाखियाँ लेकर खड़े हैं

जी रही दम साध कर बेबस शरीफ़ों की जमात
औ’ सरे बाज़ार वे ग़ुस्ताख़ियाँ लेकर खड़े हैं

मान बैठे हैं पराई पीर को अपना सगा हम
आ पराए दर्द आ हम राखियाँ लेकर खड़े हैं

हर तरफ़ कानून चौकस है व्यवस्था जागती है
पर सुखी-से लोग जो चालाकियाँ लेकर खड़े हैं

छंद-हीना बस्तियों के शोर से पर अप्रभावित
हम कबीरा-से रहे हैं साखियाँ ले कर खड़े हैं