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भाव-अभाव (कविता) / शम्भुनाथ मिश्र

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भेलनि बी.पी.एस.सी. क रिजल्ट
जाहिमे पौलनि उच्चस्थान
गेलनि चटपटे नौकरी लागि
दरमाहा सोझे तीस हजार
छलनि चैम्बर चमचम चमकैत
गेटपर दरबानीमे ठाढ़,
एक नहि दू-दू टा दरबान।
भेलनि अभिनन्दनीय एहि पुत्र लेल
बापहुकेँ उचिते गर्व,
बिकायल खेत भेलनि सत्कार्य
अरजता बौआ लाखक-लाख
दरिद्रा भागि जेती, नेपाल

छला बम्भोल कका बड़ नीक
स्वभावोमे आपकता बेस
छलनि नहि बेसी आस्था-पात
मुदा खुट्टा पर एक महींस,
रहै छल बारह मास लगैत।
रहथि तँ पढ़ल-लिखल बड़ थोड़,
किन्तु अपना उद्यम आ संयमसँ
आनन्दित छला रहैत

छलनि काकाकेँ बेटा तीन,
जेठकेँ बच्चन छला कहैत
पूतकेँ होइत नौकरी ठामठामसँ आबय लागल लोक,
घटक सब चारू भरसँ आबि-आबि
राखय लागल प्रस्ताव
करौथिन बच्चनकेर विवाह,
ताहि लय पैघ पाँजि आ टकाबलाकेँ
उठलै जेना उजाहि
काटरक रोग-ग्रस्त आन्हर समाज बिच
घटक लोकनि
दस बारह पन्द्रह बीस लाखकेर
देबय लगला डाक,
जेना लाखक नहि कोनो मोल
गेलनि मन उजबुजाय काकाक।
सतत लोकक धरोहिसँ त्रस्त
होइनि जे जाइ गामसँ भागि,
अन्ततः भेलनि गोढ़ैता गाम,
गुमानी ठाकुर हुनकर नाम
रहथि अभियन्ता उच्च पदस्थ
तथा कन्या से एम.ए. पास,
उझिलि देलथिन ओ पन्द्रह लाख
तथा बेटीक नामपर फ्लैट,
भेलनि बड़ धूमधामसँ बच्चन झाक विवाह
गुमानी ठाकुर कन्या संग।

गामपर यज्ञक भेलनि नेयार,
दुनू पुत्रक होयतनि उपनयन,
माय करथिन एकादशी यज्ञ,
कल्पना रंग-विरंगक लेने
कमौआ बेटा लग चललाह।

काकाकेँ एतबा छलनि ज्ञात
बच्चन रहैत छथि सासुरमे
तेँ डेरेपर ओ पहुँचलाह
बेटा रहथिन कार्यालयमे,
डेरापर समधि तथा समधिन
आ पुत्रवधू रहथिन बैसल।
काका गेलाह चकुआय, पुतहुकेर वस्त्राभूषण देखि,
बेलबट पेन्ट, जिन्सकेर शर्ट
कतहु अन्यत्र गेलहुँ नहि आबि?
मनहि मन होइत पुनः आश्वस्त
जेना सकुचायल भावेँ सोचि पुनः
बजला काका बम्भोल
गामपर शुक्ल पक्ष एकादशीक दिन
यज्ञक कयल नियार,
माय करती एकादशी यज्ञ,
दुनू पुत्रक होयतनि उपनयन,
पुतहु तँ जयबे करती गाम,
काज तँ हुनके छनि करबाक,
घरक लक्ष्मीक बिना नहि काज उचित,
तेँ अपनहिँ आबय पड़ल बात एतबे टा कहबा लेल,
गामपर नहि क्यौ अपन समाङ,
समधि अबियैक एक दिन पूर्व,
किए तँ कुमरमेक दिन सर-कुटुम्ब
वर्गादि पहुँचि जयताह।
निवेदन यैह, मनोरथ यैह,
सबहि मिलि करी यज्ञ सम्पन्न,
दिनमे होयत दुहुक उपनयन
राति देखी एकादशी यज्ञ।

पिता चरचे करैत छलथिन ता
बच्चन स्वयं सेहो अयलाह
कहलथिन पत्नी डाँटि कथी लय देलनि
हमर पिताजी क्वार्ज
हाथमे बन्हनहि की हो घड़ी
रहैछ न समयक कोनो ठेकान,
अहाँके छलय मोबाइलो ऑफ,
रहै अछि हमर न कनियो ध्यान,
छलै ब्यूटी पॉर्लर जयबाक,
देलहुँ हम सूगा जकाँ पढ़ाय,
मुदा अछि माथ जेना मतसुन्न,
कहू की कहिया बुझबै आब?
अपन पत्नीके तेबर देखि बहुत सकुचायल भावेँ
तितल बिलाड़ि भेल बच्चन साहस करैत बजलाह
चलू ने भीतर होयत गप्प,
छलै आयल हाकिम बड़ पैघ
बनाबक छलै एक ‘प्रोजेक्ट’,
छलै तेँ सभक मोबाइलो ऑफ,
मुदा छी एना किए तमसैल,
हेतै सब काज कहू ने की सब अछि करबाक?

कहब की? बाबूजी छथि ऐल,
गामपर चलक हेतु कहताह,
स्वयं तँ नहियेँ जायब गाम,
अहूँके ओतय न अछि जयबाक।
दिऔरक छनिहेँ जँ उपनयन,
ताहि लय जायब गाम किएक
साफ कऽ कहबनि सबटा हाल
करब नहि गें गों गें गों बात,
रहै अछि छुट्टीकेर अभाव,
अहाँकेँ बाजक नहि हो लूरि
तखन हम अपने कहबनि जाय
पाइ-कौड़ीक जहाँ धरि बात,
ताहिलय हम नहि रोकब हाथ,
मुदा अछि हनीमून जयबाक ताहिलय टिकट कटाबक हैत,
ओना तँ उचित आर उपयुक्त लगैए हमरा नैनीताल
मनायब हनीमून भरि पोख, कतहु नहि घूमब हम तत्काल
पतिक मन अकबक करइत देखि
स्वयं बाहर भऽ कऽ बजलीह,
रहै छनि ऑफिसमे बड़ काज,
जाइ छथि भोर, अबै छथि राति,
न करियनि जयबालय बड़ जिद्द
नौकरीपर जँ जड़तनि आँच,
काज नहि अयतनि यज्ञो जाप
किए तँ बाहर छनि जयबाक
असम्भव तेँ लगैत अछि गाम

समधियो देलथिन लाथ लगाय
अन्तमे गुनधुन करइत बच्चनझा
अङनासँ बहरयलाह
व्यथित मन दैत हाथमे पाइ
पिता लग स्वयं जाय बजलाह

गाम जायब सम्भव नहि एखन
रहै अछि छुट्टीकेर अभाव,
भेल छी पराधीन हम आब,
रहै छै ऑफिसमे बड़ काज,
गाममे बौआकेर उपनयन,
मनोरथ हमरो छल अयबाक,
मुदा छी विवश कते की कहू,
रहय धरि ध्यान करब नहि लोकक अधिक पसार
पिताकेँ अर्थक छलनि अभाव
चेतना कऽ उठलनि चीत्कार
जखन बेटे भेलाह अज्ञान
तखन पैसे लऽ कऽ की करब

द्वन्द्वमे फँसले रहलनि चित्त
हृदय कहि उठलनि रोपल आम,
मुदा बहरायल नीमक गाछ,
सोचि कहलनि ढौआक न काज,
अहाँसँ हमही अयलहुँ बाज,
मनोरथ मनक मनहि रहि गेल,
अहीँकेँ राखक चाही ध्यान,
परिस्थिति बुझितहुँ होइत नीक
एहिसँ अधिक कहब नहि ठीक,
दुनू बेकती जँ अबितहुँ गाम,
सूप सन हमरो छाती होइत
हमर अरुदा सेहो बढ़ि जाइत
पुत्रकेँ दैत अपन आशीष
आँखिमे भरि भरि अयलनि नोर
ओहि फटलाहा छाता जकाँ गहेगह
छाती छलनी भेल
पूतकेर सूनि ओल सन बोल
हमर काका छलाह निस्तब्ध।

व्यथित मन एतबे कहि घुरलाह
हमर कर्त्तव्य कोटिमे अछि दूनूटा यज्ञ,
करा सम्पन्न, होयत भगवद्भजने अबलम्ब।
जीवनी शक्ति हमर घटि गेल
रहल नहि जीबक इच्छा आब,
मरब तँ अयबे करत समाद,
हमर मुँहमे जे लागत ऊक,
तकर अधिकारी सेहो अहीँ
कदाच न तखनहुँ हो अवकाश
श्राद्ध तँ करय पड़त अनिवार्य
तखन चल आयब अपना गाम
कका चलला ठेहिआयल देह,
बिलायल मनसँ पुत्र-स्नेह
आँखि लग लागनि घुप्प अन्हार
तदपि नहुँ-नहुँ चलैत अति श्रान्त
चित्त चिन्तनमे रहनि निमग्न
आत्म अन्वेषण कयलनि काका पुनि
अपने बाजय लगलाह
बेटा बेचि उचित नहि कयलहुँ
आइ होइछ ई भान
अपनहि जनमल बेटा लग
तेँ घोर भेल अपमान
थीक हमर कर्मेक चूक की
युगक थिकै प्रभाव
टूटल सब सम्बन्धक बन्धन
भावक भेल अभाव