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भाव कुवारे है / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

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सौदागर से निकल गये क्यों अब तक नहीं पधारे हैं?
डेरा डाले हुए तुम्हारी यादों के बन्जारे है।

रहा ढूँढता किन्तु न रस की धार मिली मुझको कोई,
सूने सूने से लगते सब जीवन के गलियारे हैं।

विरह वेदनाओं के नश्तर चुपकर सहता रहता हूँ,
तुम बिन समझें कौन किस तरह गिन-गिन दिवस गुजारें हैं?

और कहूँ क्या अपने युग की घोर विषमता को लेकर,
घिरे हुए सिर पर संकट घन रहते घूम धुँआरे हैं।

टेर न पुहँची तुम तक प्राणों की कुछ कमी रही होगी,
नैन बिछाए राह देखते रहते बाँह पसारे हैं।

अरमानों की नित्य होलियाँ धू-धू कर जलती रहती,
कुंठित यौवन आज देश का रोता साँझ सकारे हैं।

एकाकी मन गीत गा रहा फूल कागजी सजाढा,
अभिव्यक्ति मिल सकी कहाँ कविता के भाव कुँवारे हैं।

अरे रिश्वती दौर! ज्ञान गुण की अनदेखी मत कर तू
लोभ ग्रस्त चमचें तेरे सब प्रतिभा के हत्यारे हैं।

हर पल गरल पान करने के सिवा न कोई चारा है
यान्त्रिक उन्नति ने विशाल अपने विष पंख पसारे हैं।

धूमिल धूमिल हुई गुलाबों की रंगत अपने मन में,
दुष्ट प्रदूषण ने कलियों के रूप सिंगार उतारे हैं।

लूट खसोट और भ्रष्टाचारों के ज्वार समुन्नत हैं,
अब तो केवल 'राम' देश की नैया के रखवारे हैं।