भाषा और जूते / शिरीष कुमार मौर्य
अपने बनने की शुरूआत से ही
धरती और पांव के बीच बाधा नहीं सम्बन्ध की तरह
विकसित हुए हैं जूते
लेकिन नहाते और सोते वक़्त जूते पहनना समझ से परे है
लोग अब भाषा में भी जूते पहनकर चलने लगे हैं
वे कलम की स्याही जांचने और काग़ज़ के कोरेपन को
महसूस करने की बजाए
जूते चमकाते हैं मनोयोग से
और उन्हें पहन भाषा में उतर जाते हैं
कविता की धरती पर पदचिह्न नहीं जूतों की छाप मिलने लगी हैं
अलग-अलग नम्बरों की
कुछ लोगों के जूतों का आकार बढ़ता जाता है सम्मानों-पुरस्कारों के साथ
वे अधिक जगह घेरने और अधिक आवाज़ करने लगते हैं
कुछ लोग अपने आकार से बड़े जूते पहनने लगते हैं
उन्हें लद्धड़ घसीटते दिख जाते हैं
अधिक बड़ी छाप छोड़ जाने की निर्दयी और मूर्ख आकांक्षा से भरे
अब भाषा कोई मंदिर तो नहीं या फिर दादी की रसोई
कि जूते पहनकर आना मना कर दिया जाए
मैंने देखा एक विकट प्रतिभावान
अचानक कविता में स्थापित हो गया युवा कवि
कविता की भाषा में पतलून पहनना भूल गया था
पर जूते नहीं
वो चमक रहे थे शानदार
उन्हें कविता में पोंछकर वह कविता से बाहर निकल गया
और इसका क्या करें
कि एक बहुत प्रिय अति-वरिष्ठ हमारे बिना फीते के चमरौंधे पहनते हैं
भाषा में झगड़ा कर लेते हैं
–क्या रक्खा है बातों में ले लो जूता हाथों में की तर्ज़ पर
खोल लेते हैं उन्हें
उधर वे जूता लहराते हैं
इधर उनके मोज़े गंधाते हैं
दुहरी मार है यह भाषा बेचारी पर
कुछ कवियों के जूते दिल्ली के तीन बड़े प्रकाशकों की देहरी पर
उतरे हुए पाए जाते हैं
प्रकाशक की देहरी भाषा का मनमर्जी गलियारा नहीं
एक बड़ी और पवित्र जगह है
कवियों के ये जूते कभी आपसी झगड़ों में उतरते हैं
तो कभी अतिशय विनम्रता में
कविता में कभी नहीं उतरते डटे रहते हैं पालिश किए हुए चमचमाते खुर्राट
दूसरों को हीन साबित करते
कुछ कवयित्रियां भी हैं
अल्लाह मुआफ़ करे वे वरिष्ठ कवियों और आलोचकों के समारोहों में
सालियों की भूमिका निभाती दिख जाती हैं
शरारतन जूता चुराती फिर अपना प्राप्य पा पल्लू से उन्हें और भी चमकाती
लौटा जाती हैं
इस बात पर मुझे ख़ुद जूते पड़ सकते हैं पर कहना तो होगा ही इसे
समझदार कवयित्रियां जानती हैं
कि कविता वरिष्ठों के जूतों में नहीं भाषा की धूल में निवास करती है
ग़नीमत है आज भी स्त्रियां पुरुषों से अधिक जानती हैं
युवतर कवियों में इधर खेल के ब्रांडेड जूते पहनने का चलन बढ़ा है
वे दौड़ में हैं और पीछे छूट जाने का भय है
कुछ गंवार तब भी चले आते हैं नंगे पांव
उनके ज़ख़्म सहानुभूति तो जगा सकते हैं पर उन्हें जूता नहीं पहना सकते
मैं बहुत संजीदा हूं जूतों से भरती भाषा और कविता के संसार में
मेरी इस कविता को महज खिलंदड़ापन न मान लिया जाए
मैंने ख़ुद तीन बार जूते पहने पर तुरत उतार भी दिए
वे पांव काटते थे मेरा
और मैं पांव की क़ीमत पर जूते बचा लेने का हामी नहीं था
अब मैं भाषा का एक साधारण पदातिक
जूतों के दुकानदारों को कविता का लालच देता घूम रहा हूं
कि किसी तरह बिक्री बंद हो जूतों की
पर मेरा दिया हुआ लालच कम है भाषा में जूतों का व्यापार
उदारीकरण के दौर में एक बड़ी सम्भावना है
कुछ समय बाद शायद मैं जूताचोर बन जाऊं बल्कि उससे अधिक
भाषा में जूतों का हत्यारा
लानत के पत्थर बांध फेंकने लगूं अपने चुराए जूते
नदियों और झीलों में
क्योंकि अभी आत्मालोचना के एक हठी इलाक़े में प्रवेश किया है मैंने
और वहां करने लायक बचे कामों में यह भी एक बड़ा काम बचा है।