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भाषा का संगीत और पाज़ (प्रयाग शुक्ल) / ओक्ताविओ पाज़

विश्वविख्यात मेक्सिकन कवि और कला चिन्तक ओक्तोविओ पाज़ (जन्म : 31 मार्च 1914, मृत्यु : 19 अप्रैल 1998) का सम्बन्ध भारत से बहुत गहरा था और यह सम्बन्ध उन्हें साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिलने से बहुत पहले शुरू हुआ था। पाज़ को नोबेल 1990 में मिला था और भारत में वह मेक्सिको के राजदूत के रूप में बीसवीं सदी के छठवें दशक में नई दिल्ली में कई वर्ष रहे थे तथा भारत के कई हिस्सों का उन्होंने भ्रमण किया था। भारत सम्बन्धी उनकी कविताएँ भी शताधिक हैं।
यहीं रहते हुए उनकी मैत्री कई कवि-लेखकों और कलाकारों से हुई, जिनमें चित्रकार जगदीश स्वामीनाथन, अम्बादास, हिम्मत शाह, श्रीकान्त वर्मा, कमलेश आदि शामिल रहे हैं। स्वामीनाथन की अगुवाई में शुरू हुए कलाकारों के चर्चित 'ग्रुप’ '1890’ की पहली (और आख़िरी) प्रदर्शनी के कैटलॉग के लिए टिप्पणी उन्होंने ही लिखी थी। उन्होंने स्वामीनाथन की कला और उनकी कला-दृष्टि पर एक कविता भी लिखी है। इस प्रदर्शनी का उद्घाटन जवाहर लाल नेहरू ने किया था। अनन्तर पाज़ ने 'इन लाइट ऑफ़ इण्डिया’ शीर्षक से एक पुस्तक ही लिखी, जिसमें भारत के प्रति अपने अनुराग के कारण तो उन्होंने गिनाए ही हैं, भारत के वर्तमान और अतीत पर मर्मभरी टिप्पणियाँ भी की हैं। इस पुस्तक में कबीर की कविता और उनके विचारों का सम्यक विवेचन भी उन्होंने किया है। दरअसल पाज़ बीसवीं सदी के प्रखरतम बुद्धिजीवियों में अग्रणी रहे हैं और विश्वस्तर पर वह एक कवि और चिन्तक के रूप में समादृत रहे हैं।
यह वर्ष उनकी जन्मशती का वर्ष है। उनके साहित्यक-सांस्कृतिक योगदान को याद किया जा रहा है। भारत से उनके सम्बन्धों के कारण जितने आयोजनों की अपेक्षा थी, उतने तो देखने में नहीं आए पर कुछ आयोजन तो हुए ही हैं। पाज उन बुद्धिजीवियों और लेखकों कवियों में से थे, जो अपने समय के कई रचनात्मक आन्दोलनों, रचनाकारों और रचना-भूमियों से मानों सहज और अनायास ढंग से जुड़ जाते हैं। सो, मेक्सिकन और स्पानी भाषी पाज अपने युवा दिनों में ही स्पानी गृहयुद्ध के समय आयोजित 'राइटर्स कांग्रेस, 1938’ के अवसर पर जिन कवियों-कलाकारों के सम्पर्क में आए उनमें सुररियलिस्ट कवि-कलाकार भी शामिल थे, जिन्होंने पाज को गहरे में प्रभावित किया पर वह क्रमश: पूर्वी (ओरियंटल) चिन्तन-सृजन तथा संरचनावादी नृतत्वशास्त्र की ओर मुड़ गए। भारत प्रवास में उनकी दिलचस्पी मिथकों में और गहराती गई और उनका बहुतेरा लेखन मिथकों की संश्लिष्ट, आध्यात्मिक और विचारशील व्याख्या को भी समर्पित है। उन्होंने हनुमान की मिथकीय अवधारणा अपने ढंग से की है और 'मंकी द ग्रामैटियन’ (वानर वैयाकरणिक) नाम से एक पुस्तक भी लिखी तथा 'काली’ के 'स्वरूप’ को भी विवेचित किया है।
कलाकार मार्सेल दुशां पर उनकी एक और चर्चित पुस्तक है, 'अपियरेंस स्ट्रिप्ड बेअर।’ इन्होंने स्पानी जगत के और अमेरिकी कवियों पर कई लेख लिखे हैं। इनमें से कुछ भारत में रहते हुए ही लिखे गए थे। उनकी कविताओं और विचारों में अग्नि-लपट-सी तेज़ी और ताप है। एक पवन वेग है और जिस प्रकार रश्मियाँ कई कोनों-अन्तरों और छिद्रों में भी प्रवेश कर जाती हैं उसी प्रकार विभिन्न क्षेत्रों और वैचारिक-भावात्मक इलाकों में उनकी दृष्टि सूक्ष्मतर होकर वैचारिक कणों का संकलन करती हैं। कलाएँ, मिथकीय अवधारणाएँ, संस्कृतियाँ, धरोहरें उनकी कविताओं और वैचारिक गद्य, दोनों में एक जरूरी भूमिका निभाती हैं। मुक्तिबोध से शब्द उधार लेकर कहें तो उनका 'ज्ञानात्मक संवेदन’ और 'संवेदनात्मक ज्ञान’ दोनों ही जागृत है।
पाज़ विश्वसाहित्य के गहरे अध्येता भी रहे हैं। प्रसंगवश यहां याद कर सकते हैं कि 1964 में मुक्तिबोध की मृत्यु के बाद लेखकों-कवियों की जो स्मृति-सभा दिल्ली में हुई थी उसमें पाज़ ने मुक्तिबोध पर कुछ कहा भी था और एक कविता स्पानी भाषा में पढ़ी थी। पाज़ की कविता का हिन्दी अनुवाद कवि कमलेश ने पढ़ा था। सभा में डॉ० रामननोहर लोहिया भी उपस्थित थे। पाज़ से एक बार स्वामीनाथन के घर मिलने की भी मुझे याद है। दिल्ली में कुछ सांस्कृतिक-साहित्यिक आयोजनों में उनकी गरिमापूर्ण, गम्भीर, प्रखर उपस्थिति का बोध आज भी मेरे भीतर है।
साहित्य अकादेमी के तत्कालीन सचिव इन्द्रनाथ चौधुरी के सुझाव और आग्रह पर मैंने 1994-1995 में पाज़ की कविताओं के अनुवाद का काम हाथ में लिया था। पाज़ की कविताओं से मानों इस क्रम में कुछ अधिक परिचित हुआ हूं। अनुवाद मैंने अँग्रेज़ी अनुवादों से ही किए, पर छोटी बेटी वर्षिता (जो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में स्पानी की छात्रा रही है) की मदद भी मूल स्पानी से उनके मिलान में कुछ तो मिलती ही रही। सन 1996 में साहित्य अकादेमी से 'ओक्तोविओ पाज की कविताएँ’ शीर्षक से यह अनुवाद पुस्तकाकार प्रकाशित हुए। आवरण की परिकल्पना चित्रकार अमिताभ दास ने की थी और इसके लिए स्वामीनाथन की चित्रकृतियों से कुछ हिस्से लिए थे। अफ़सोस, स्वामीनाथन यह संग्रह न देख सके। सन 1994 के अप्रैल में उनका देहान्त हो गया। इस संग्रह में स्वामीनाथन पर लिखी पाज की कविता भी संग्रहित है। इस कविता का अन्यत्र प्रकाशित एक सुघड़ अनुवाद रमेशचन्द्र शाह ने भी किया है। एक प्रयोग की भी याद आती है। अज्ञेय, पाज़ और श्रीकान्त वर्मा ने 'नदी’ पर एक कविता लिखी है। सम्मिलित रूप से। एक कवि ने कुछ पंक्तियाँ लिखीं। दूसरे ने उनमें अपनी पंक्तियाँ जोड़ीं।
पाज़ की कविताओं का अनुवाद करते हुए मैंने एकाधिक बार गौर किया कि उनमें शब्द और भाषा का संगीत है। बिम्ब बहुलता है। गहरी चित्रात्मक्ता भी। ढाँचा ऐसा जो कहीं उन्मुक्त भी लगता है, पर है बहुत कसा हुआ। वह वेगवान है, पर उसमें आन्तरिक संयम भी है। वह फूटते हुए कल-कल जल की तरह भी है, तेज़ बहती हवा की तरह भी। पर वह केवल फूटती और बहती नहीं है। जिन जगहों, चीज़ों, पात्रों के बीच से गुज़रती है उनके अतलस्पर्शी मर्म भी साथ लेकर चलती है। वह किसी विषय-वस्तु की जमीन पर बीज की तरह पड़ती है और अन्तत: अपना एक यथार्थ पाती है। भारत सम्बन्धी उनकी कुछ कविताओं को यहां प्रसंगवश याद कर सकते हैं- 'अमीर खुसरो का मकबरा’ उदयपुर का एक दिन’ मैसूर के मार्गों पर’ 'मदुरै’ 'हुमायूँ का मकबरा’ 'लोदी गार्डेंस में’ 'हिमाचल प्रदेश’ 'रविवार को एलिफ़ैण्टा’ आदि।
पाज़ के यहाँ काल, प्रकृति, सृष्टि, प्रेम, स्मृति, जीवन के सातत्य और उसकी क्षणभंगुरता तथा दैहिक-आत्मिक सौंदर्य के अनेक तत्वों का बेहद मर्मस्पर्शी, सम्वेदनात्मक पर अन्तत: तटस्थ रूपांकन है जो हमें परत दर परत अपनी लपेट में ले लेता है और हम एक साथ ही उत्प्रेरक की शक्ति रखने वाले काव्य-बोध और जीवन-बोध से भर उठते हैं। जो कुछ दृष्टिगोचर है, उसके प्रति एक सहज आकर्षण, उत्सुक्ता और विस्मय है, अन्तर जगत के आलोड़न-उद्वेलन हैं और ग्रह-नक्षत्रों से लेकर किसी चट्टान या वृक्ष के भीतर भी 'प्रवेश’ करने की अदम्य इच्छा है। पाज़ को पढ़ना अपने बाहर और भीतर एक और ही तरह से झाँकना है।
--प्रयाग शुक्ल