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भाषा की नींद / वंशी माहेश्वरी
Kavita Kosh से
ऊँची आवाज़ों को सुना
नीचे कानों ने
कुछ कहा गया कुछ सुना गया
सन्न हो गया कहना-सुनना
जितने मुँह खुले थे
उतने ही स्वर सधे थे
भाषा की नींद में शब्द के स्वप्न अन्तिम नहीं
टूटती नींद में
टूटते सपने
सघन अंधेरे की
सघन छाया
गाहे-बगाहे चढ़ती रहती है
देश की तीली पर
रोग़न सघन