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भाषा की स्मृति / रंजना मिश्र
Kavita Kosh से
मंगलेश डबराल के लिए
हर नए दुख के लिए
भाषा के पास कुछ पुराने शब्द थे
हर नया दुख भाषा के प्राचीन शब्दकोश का
नया सन्धान
हर नए दुख के बाद
भाषा की अछूती पगडण्डियाँ तलाशनी थीं
चलते चले जाना था
वन कन्दराओं आग पानी घाटियों में
हर अन्त एक शुरुआत थी
हर शुरुआत अपने अन्त की निरन्तरता
कोलाहल भरी लम्बी यात्राओं के बाद मैने पाया
दुख छुपा बैठा था
शब्दों के बीच ठहरे मौन में
आसरा ढूँढ़ता था
सबसे सरल शब्दों का
हर नए दुख की उपस्थिति
भाषा की आदि स्मृति थी