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भाषा के घिसे-पिटे / नईम

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भाषा के घिसे-पिटे चालू मुहावरे में,
अनुवादित हो नहीं सके हम-तुम।

चाहा था सही नाम
देना सम्बंधों को,
वेदी पर किए गए
फेरे, अनुबंधों को;

आँचल के छोर और उत्तरीय के कोने
दाग लगे धो नहीं सके हम-तुम।

बूझती-समझती-सी
ठिठकी, फिर चली बात,
दाईं-बाईं कवट
करती रह गई रात;

अपने-अपने घेरे, घिरे रहे प्रश्नों से,
अपराजित सो नहीं सके हम-तुम।

सृजन के क्षणों में रत
लगाते रहे लेखे,
युद्ध के प्रतीकों में
घर के सपने देखे;

आइने लिए खंडित, आड़े-तिरछे साए
प्रतिबिंबित हो नहीं सके हम-तुम!