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भाषा / प्रदीप जिलवाने

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कितने बहुविधभाषी हैं हम
घर में अलग भाषा बोलते हैं
और बाज़ार में अलग।

हमारी नैतिक भाषा कुछ और होती है
सामाजिक कुछ और
राजनीतिक कुछ और
और यह भाषायी फ़र्क
सिर्फ़ हमारे लहजे तक सीमित नहीं रहा
हमारे विचारों से भी परिलक्षित होने लगा है स्पष्ट

अब थूक से सिर्फ़ करारे नोट ही नहीं गिने जाते
अपनी भाषा को भी चमकाया जाता है
हमारी दोमुँही-चौमुँही चिकनी-चुपड़ी भाषा
विक्षिप्त आदमी के संकेतों-सी गूढ़ रहस्यमय
और भटकाऊ भले हो,
कमाऊ है
और कमाऊ पूत
हर माँ को प्यारा होता है।