भिक्षुणी की ताल / पूनम अरोड़ा 'श्री श्री'
मन भिक्षुणी होना चाहता है !
नंगे पांव सुदूर यात्रा पर निकलना चाहता है
हड़बड़ाहट में बेखास्ता किसी व्यंग्य पर हैरान होना चाहता है.
किसी एक हस्तमुद्रा पर ध्यान लगाकर
अपने अतीत के रेशम में
वो नर्म कीड़े खोजना चाहता है
जिन्होंने संसार में अपनी आस्था रखी थी.
टापुओं की ठंडक में ह्रदय अपनी आँखें वहीं छोड़ आता है.
आग बनकर किसी पूर्व की स्मृति में
देर तक खुद को आहूत करता हुआ.
समुद्री भाषा रात भर देह पर सरसराहट करती है.
यह तलाश के क्या नये बिंदु नहीं मन पर?
निस्तब्ध ख़्याली मन
शोक में चांदी का एक तार बुनता रहता है.
सो चुकी मकड़ियां ऐसा तार नहीं बुन पाती
न ही जागने पर वे शोकगीत गाती हैं.
मीलों तक माँ अकेली चलती दिखाई देती है.
रोशनी की एक बारीक लकीर पर.
और मुझे याद भी नहीं रहता
कि मैं उसे पा रही हूँ या खो रही हूँ.
पांच हज़ार वर्ष पूर्व में
किसी स्त्री की एक 'आह'
आज भी स्त्रियों के कंठों में अटकी है.
प्रश्न वहीं के वहीं है
स्थिर और ठिठके !
मुख के विचलित भावों में
एक चिड़िया सी सुबह तब मेरी दीवार पर बैठ जाती है
जब एक मोरपंख मेरी पीठ को सहलाता है
और मैं नीला कृष्ण बन जाती हूँ.
मेरे वश के सभी प्रश्न
एक स्पर्श मात्र से पिघल जाते हैं !