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भिखारिन / महेन्द्र भटनागर


सावन की घनघोर घटाएँ उमड़ी पड़ती थीं अम्बर में,
काशी के एक मुहल्ले में, मैं बैठा था अपने घर में !

ऊपर की मंज़िल का कमरा था शांत ; परंतु किवाड़ खुले,
सूख रहे थे छाँह-गोख में कुछ धोती-कपड़े धुले-धुले।

सघन तिमिर की चादर ने छा सारी वसुधा ढक डाली थी,
पर, थोड़ी-सी ज्योति गोख ने दीपक के कारण पा ली थी!

धोती की फर-फर की आहट ने ली दृष्टि खींच जब सहसा,
नेत्रा गड़े-से, स्वर मौन रहे, उस क्षण की देख अजीब दशा!

करुणा की प्रतिमा-सी युवती चुपचाप खड़ी थी मुख खोले,
जिस पर थीं भय की रेखाएँ, सोच रही थी, क्या वह बोले !

फटी-पुरानी साड़ी उलटे पल्ले की पहने थी नारी,
बिखरे-बिखरे सूखे केशों पर सुन्दरता थी बलिहारी !

श्याम-वर्ण था, कोकिल से भी मीठी थी जिसकी स्वर-लहरी,
वह बोल उठी हलके स्वर में भरकर व्यथा हृदय में गहरी —

कुछ ही महिने बीते मुझको बाबू बंगाला से आये
अन्न अकाल पड़ा था भारी, था जीना दुर्लभ बिन खाये,

भूख-भूख की इस ज्वाला में सारा परिवार विलीन हुआ,
घर का धन क्या, शिशुओं तक को बेचा, उर ममताहीन हुआ!

जीवन के दुख-दुर्गम पथ पर नश्वर काया की अनुरागिन,
हाय रही जाने क्यों जीवित अब तक मैं ही एक अभागिन !

कुछ पैसों की भिक्षा को अब फिरती हूँ नगर-नगर घर-घर,
ऊब चुकी हूँ इस जीवन से सचमुच, जग में रहना दूभर !

कुछ दे दो ओ बाबू ! तुम भी दुनिया में खूब फलो-फूलो !
भूखी और दुखी आत्मा की यही दुआ है, सुख में झूलो !’

फिर वह दुखिया आँसू भर कर इतना कह बैठ गयी थक कर,
मैं सोच रहा था, दुनिया भी क्या है नग्न विषमता का घर !

मेरे उर में जाग उठी थी जीवन की उत्कट अभिलाषा,
पूछूँ इसका पूरा परिचय बतला देगी, थी कुछ आशा।

फिर लिखने को युग की गाथा मिल जाएगा सच्चा जीवन,
मिल जाएगा अवसर, करने युग की हीन दशा का चित्राण।

जाने कितने दिन की होगी भूखी-प्यासी यह सोच तनिक,
मैंने सोचा इन बातों को अच्छा हो टालूँ सुबह तलक।

फिर उसको भोजन-आश्रय दे मैं भी सोने तत्काल गया,
एक प्रहर इस उलझन में ही बीता कब होगा प्रात नया।

सुबह-सुबह उठकर जब देखा, केवल पाया अबला का शव,
इसी तरह दम तोड़ रहे हैं जग में जाने कितने मानव !

उसको कोई जान न पाया, कितना करुण अकेला जीवन,
कहना,सचमुच, यह मुश्किल है कितना मर्मान्तक था वह क्षण!
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