भिखारिन / रामकृपाल गुप्ता
मलिन झोपड़ी के छिटके ज्यों घास-फूस
बिखरी थी उसकी रूखी-सूखी लटें बाल की
मिट्टी के मुँह पर दरार-सी
आँसू की सूखी घरार और
गलती-ढलती जली, मोमबत्ती-सी आँखे।
फटी-फटी बदली के मटमैले वस्त्रों सें
झाँक-झाँक उठती थी
नीली देह गगन-सी रक्तहीन
रे डुगर-डुगर संठे के पैरों पर चलता कंकाल
अस्थियों का
पतझर का पेड़ ढका चुचके चमड़े से जैसे
उभर रही जिसकी नस-नस हड्डी-हड्डी
और पिचक रहा था पेट।
निर्दयी क्रूर भूख का विकट हथौड़ा
मार रहा था, मार रहा था
झुकी चली जाती थी निर्बल रीढ़।
और साँस-साँस पर निकल रही थी आह
अटकती घुँटती-सी बस साँय-साँय।
दबी काँख के बीच मलिन चिथड़ों की पोटली
लिये स्यात वैभव समस्त
रोटी के टुकडे़ या मुट्ठी भर दाना
अथवा ताँबे के इने-गिने पैसे काई से रंगे।
एक हाथ काठी की थूनी पकड़े
और दूसरे में भुथरी टिन की चितकबरी खोरी
कभी-कभी कँपती थीं जब पथरायी अँगुलियाँ
हिल उठता था खन् खन्
ताँबे का पैसा क़िस्मत का खोटा
किसी मूढ़ ने जिसे भूल से यहाँ दे दिया।
नख-शिख तक शृंगार से लदे बाबू
नहीं समझना ये नुपूर की रूनझुन
आँखों में हाँ घृणा नाच उठती है
अगर भूल से कहीं पड़ गई नजर।
उन बैठी कुचरायी आँखों में यह जग
कड़वा-कड़वा-सा दुस्सह सघन धुँआ है।
इज्जत है दुर-दुर सुन पूँछ हिला दें
जीवन दानी-धर्मी का दिया हुआ है।