भिखारी / ब्रजमोहन पाण्डेय 'नलिन'
टेक लकुटिया हाथ में
लटका झोली साथ में
रिकटल छछनल
पेट पीठ में जेकर सटकल
माँग रहल हे एक भिखारी
डगमग डगमग
पाँव बढ़ाते
डोल रहल हे
पीपर के पत्ता के लेखा
गाँव-गाँव में गली गली में
डगर नगर औ
ठाँव-ठाँव में भीख।
लहकल लू के
चलल झकोरा
साथ न हे कपड़ा भी कोरा
बहल देह से खूब पसीना
सराबोर लथपथ हे सीना
छटपट छटपट
डोल रहल हे
अँखिया के कोना से ढरकल
आँसू के मोती भी चमकल
कहीं न डेरा
कठिन बसेरा
लगल आज दुरदिन के घेरा
कउनो नैं कुछ बोल रहल हे
कठिन काल के पड़ फेरा में
जिनगी के कुछ तोल रहल हे।
लिखल लिलरवा में जे लेखा
कइसन ढेंढ़ बनल ई रेखा
कहाँ टटोले?
बन्द किवाड़ के पट खोले
कुदरत के करिखा के धो ले।
लाल भेल हे ओकर मुखड़ा
खाड़ भेल मानो हे दुखड़ा
कटल फेंड़ के जइसन टुकड़ा
रहल इहाँ पर दीख।
माँग रहल हे भीख॥
दर दर भटके
कहीं दुआरी पर जा अटके
कहीं न केकरो तालु चटके
बोले नैं कोई भी सटके
मिलल न कोई
अइसन दाता
जिनगी के बन भाग्य विधाता
दे दे एक अधेला।
तलवा में हे पड़ल फफोला
काँप रहल ओकर हे चोला
पगडंडी पर दीख रहल जे
सबसे आज अकेला
लगल भीड़ हे केवल मेला
निकल रहल हे चीख।
माँग रहल हे भीख॥