भीख / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल
क्यों फैले हैं हाथ
क्यों गिड़गिड़ाते हैं होंठ
शब्द, हृदय को छूते हुए
आसान है क्या?
पूछता हूँ खुद से
सार्वजनिक जगह पर
औरांे के सामने
अपनी इज्जत को
हाथांे पर फैला लेना
बस रोकता हूँ आँसू
फेर लेता हूँ मुँह
या मुसकराते हुए
कर देता हूँ इनकार
खुद पर शर्मिंदा होता
क्यों हो गया कमीना
उसी क्षण
चंद सिक्कों के लिए?
राज्य की नाकामी
कर सकते हैं हलकी
कुछ देकर
जो भी आये हाथ में
इससे पहले कि
जान जाये बायाँ हाथ
दायें हाथ से
बस दे डालो
निराला की चाद
हर्षवर्धन के वस्त्र
बस दे डालो
वरना बह निकलेंगे आँसू
उस कातर वाणी से
भूख से जो बिलबिला रहा
सड़क पर पड़ा जो कराह रहा
फटे कपड़ों में अपनी इज्जत छिपा रहा
बस दे डालो
आयकर की छूट नहीं चाहे
पर स्वागत होगा
ईश्वर के राज्य में
कि तुम इनसान निकले
तुमने की मदद
जैसी भी, जैसे भी
ईश्वर के बंदे की
उसके साम्राज्य के
सच्चे सिपाही की तरह।