भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भीगी भीगी रातों में, मीठी मीठी बातों में / आनंद बख़्शी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
किशोर:
भीगी भीगी रातों में, मीठी मीठी बातों में
ऐसी बरसातो में, कैसा लगता है?

लता:
ऐसा लगता है तुम बनके बादल,
मेरे बदन को भिगोके मुझे, छेड़ रहे हो ओ
छेड़ रहे हो
ऐसा लगता है तुम बनके बादल,
मेरे बदन को भिगोके मुझे, छेड़ रहे हो ओ
छेड़ रहे हो
 
अम्बर खेले होली उई माँ
भीगी मोरी चोली, हमजोली, हमजोली
अम्बर खेले होली उई माँ
भीगी मोरी चोली, हमजोली, हमजोली
ओ, पानी के इस रेले में सावन के इस मेले में
छत पे अकेले में
कैसा लगता है

किशोर:
ऐसा लगता है
तू बनके घटा अपने सजन को भिगोके खेल खेल रही हो ओ
खेल रही हो

लता:
ऐसा लगता है
तुम बनके बादल मेरे बदन को भिगोके मुझे छेड़ रहे हो हो.
छेड़ रहे हो

किशोर:
बरखा से बचा लूँ तुझे
सीने से लगा लूँ
आ छुपा लूँ आ छूपा लूँ
बरखा से बचा लूँ तुझे
सीने से लगा लूँ
आ छुपा लूं आ छूपा लूँ
दिल ने पुकारा देखो रुत का इशारा देखो
उफ़ ये नज़ारा देखो
कैसा लगता है, बोलो?

लता:
ऐसा लगता है कुछ हो जायेगा
मस्त पवन के ये झोकें सैंया देख रहे हो ओ
देख रहे हो
ऐसा लगता है
तुम बनके बादल मेरे बदन को भिगोके मुझे छेड़ रहे हो हो
छेड़ रहे हो