भीगे डैनों वाला गरूण.. / विजेन्द्र
कई बान-
गहरी उदासी में सूर्य भीगे डैनों वाला
गरूण लगता है
वह उन्हें सुखाने को
चढ़ती-उतरती ऋतुओं के बीच
बान-बार फड़फड़ाता है
जैसे अपनी ही किरणो के इंद्रजाल को
तोड़ रहा हो
कभी-कभी
ऐसी वनस्पतियों की छवि झलकती है
चित्रों में
जिन्हें विशेषज्ञ भी नहीं जानते
देखता हूँ पशुओ को बीहड़ चरागाहों में चरते
उनकी धचकी कोखे अकाल में
बजते खुर
जो चीज़ें नहीं हैं इस दुनिया में
क्या चित्र उन्हें रच सकते हैं
ओ कवि-
एक और मन है
मन के भीतर एक और
जो देखता है ऐसे भूदृष्य
जिन्हें में भी नहीं जानता
पीछे समुद्र है पछाड़ें खाता हुआ
चट्टानो को निगलता भूखा अजगर
ज्वालामुखियों के उद्गार से फूटा
मैग्मा
आत्मा की पौंड़ती नसें
देह की धरती में
जिन्हें अक्सर काले-भूरे रंग से
दिखाता हूं चित्रों में
पहचान को बेचैन चेहरे
उत्तेजित आदिवासियों के विरोध में
उठे हज़ारों हाथ
जिनकी आँखो में
सदियों से दिपी यातनाओं की
दहक है।
मैं अपने कैनवस में
रिक्त आकाष को कोई जगह
नहीं दे पाता -
कुछ-कुछ गुलाबी-बैंगनी .... हल्के -हरे-पीले-नीले
रंगो को ही बिखेर कर
कैनवस बनता है जीवंत
मेरा अपना-
केवल सजावटी चित्र नहीं हैं
ऐसा लगे
मनुष्य, पशु, कीड़े,-मकोड़े, बीज पेड़
फूल, पत्ते और फल सब के सब
पैदा हुए हैं
ताप, जल, हवा और उजाले से।