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भीठ पर / हरेकृष्ण झा

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साबिकेसँ बहराइत अछि
ई बानी
सारंगीक तारसँ
ओएह टा बनि सकत
पुंकेसर थलकमलक,
जे जुटियो क’ सभ किछुसँ
हहाइत आबेसक संग,
कनेक फराक भेल रहत;
ओएह टा डगमग करैत रहत अर्थसँ
ताड़क अजोह कोआ जकाँ,
जे सहटल रहत
अर्थक अनर्थसँ;
ओएह टा पबैत रहत मोक्ष,
हाथ जकर
आकाशक डीह भेल रहत।
कतएसँ अबैत अछि ई बानी
सारंगीक तारमे ?
आम किंवा लीचीक मज्जरसँ,
जाहि पर फागुनक महुआएल रौद
खूब चपकारि क’
औंसल रहैत छैक !

जिनगीक पेनी छनैत अछि
ई बानीः
निस्संग लागिक भीठ पर
भकरार होइत अछि जीवन।