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भीड़ और मैं / शुभा द्विवेदी

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भीड़ बहुत है यहाँ, मन एकांत चाहता है
पढ़ रही हूँ सभी के चेहरे
दिख रहा है कुछ न कुछ
बदल रही हैं भाव भंगिमाएँ
बड़ी गहमागहमी-सी मची है यहाँ
मेरा मन! मेरा मन सिर्फ डूब रहा है अंतर में
मिल गया एक सफ़ेद कागज
खिचने लगी आढ़ी तिरछी रेखाएँ
लिखने लगी मन या उतारने लगी शब्द फिर से आज
कभी कभी लगता है सुन्दर संसार है ये
कितने प्रश्न और उत्तर छिपे है सभी के मन में
सब बातें कर रहे है एक दूसरे से
बदलते हुए व्यक्तितव, बदलते हुए रंग
और मैं तलाशती रहती हूँ एक ही रंग, सफ़ेद
जिस पर किसी रंग को भी चढ़ाया जा सके
चाहे नीला, चाहे काला
नीला अनंत आकाश
काला, गहराती हुई निशा-सा काला
कितनी ही बार आज सुबह से महसूस कर चुकी हूँ
भीड़ अच्छी है
लेकिन मैं क्योँ नहीं खो पा रही हूँ इस भीड़ में
मैं भी बनना चाहती हूँ एक हिस्सा इस भीड़ का,
नहीं बन पा रही हूँ, न जाने क्योँ
न जाने क्योँ प्रेम झरने लगा, आँखों से