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भीड़ में अकेले / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल

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शहर की जिंदगी में
रोज नये काम होते हैं
कुछ करते हैं
कुछ होते हैं
कुछ पाते हैं
 कुछ खोते हैं
यूँ ही निरर्थक बीतते
जीवन को रोते हैं
फिर वही भीड़ में धँसना है
फिर वही उदासियों में फँसना है
कभी-कभी हँसते हैं
कुछ-कुछ खुश होते हैं
ज्यादातर तो मजबूरियों को रोते हैं
कुछ याद रहते हें
कुछ भूल जाते हैं
रूमाल में भी
गाँठ लगाकर थक गये
वक्त है कम
काम ज्यादा होते हैं
नींद है दूर
कहाँ मन भर सोते हैं
हाँ, कई बार
माता-पिता को याद कर
हिचक-हिचक रोते हैं
कोई कंधा नहीं
जहाँ दुख रो ले
बस पेड़ों-पत्तों को सुनाकर
गम हलके होते हैं
शहर की जिंदगी में
 रोज नए काम होते हैं।