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भीड़ में गुम हो गयी / सांध्य के ये गीत लो / यतींद्रनाथ राही

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भीड़ में गुम हो गयी
उँगली तुम्हारी कब
पूछते हैं हम पता
परछाइयों से अब!

हैं अँधेरे ही अँधेरे
टिमटिमाते से नखत कुछ
और ये व्यवधान पथ पर
आ रहे हैं अनवरत कुछ
चल पड़ा हूँ
नींद की चादर झटक कर
हौसलों की
फिर नयी अँगड़ाइयों से अब!

दर्द गाए
घुटन दहशत
झूठ के मन्डनकरण के
क्षरित होते
कुपथ गामी
संस्कारित आचरण के
मौन की अन्तर्व्यथा को
शब्द देने के लिये तो
बात करनी है तनिक
तन्हाइयों से अब!

पेट भूखे
पीठ नंगी
भटकता विभ्रांत यौवन
राम को लाने चले थे
ला धरे, कितने दशानन
कब अयोध्या में जलेंगे
नेह के दीपक बता दो?
प्रश्न है बुनियाद का
ऊँचाइयों से अब!