भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भीड़ में भी रहता हूँ वीरान के सहारे / रमानाथ अवस्थी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भीड़ में भी रहता हूँ वीरान के सहारे
जैसे कोई मन्दिर किसी गाँव के किनारे

जाना-अनजाना शोर आता बिन बुलाए
जीवन की आग को आवाज़ में छिपाए
दूर-दूर काली रात साँए-साँए करती
मन में न जाने कैसे-कैसे रंग भरती

अनजाना, अनथाहा अन्धकार बार-बार
करता है तारों से न जाने क्या इशारे !

चारों ओर बिखरे हैं धूल भरे रास्ते
पता नहीं इनमें है कौन मेरे वास्ते
जाने कहाँ जाने के लिए हूँ यहाँ आया
किसी देवी-देवता ने नहीं यह बताया

मिलने को मिलता है सारा ही ज़माना
एक नहीं मिलता जो प्यार से पुकारे !

तन चाहे कहीं भी हो, मन है सफ़र में
हुआ मैं पराया जैसा अपने ही घर में
सूरज की आग मेरे साथ-साथ चलती
चाँदनी से मिली-जुली रात मुझे छलती

तन की थकन तो उतार ली है पथ ने
जाने कौन मन की थकन को उतारे !

कोई नहीं लगा मुझे अपना-पराया
दिल से मिला जो उसे दिल से लगाया
भेदभाव नहीं किया शूल या सुमन से
पाप-पुण्य जो भी किया, किया पूरे मन से

जैसा भी हूँ, वैसा ही हूँ समय के सामने
चाहे मुझे नाश करे, चाहे यह सँवारे ।