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भीतर-भीतर मन रोता है / रामेश्वर नाथ मिश्र 'अनुरोध'

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फीकी-सी मुस्कान अधर पर
आती जब दुख घन होता है।
बाहर से हँसता हूँ लेकिन,
भीतर भीतर मन रोता है॥

लतापता का जैसे हिमकण
ढुलक धूल में मिल जाता है,
सुषमा का आगार कुसुम ज्यों
मात्र एक दिन खिल पाता है;

वैसे क्षणभंगुर जीवन को
बिना बात के तन ढोता है।
बाहर से हँसता हूँ लेकिन,
भीतरभीतर मन रोता है॥

आज सत्य को झुठलाकर नर
घूम रहा है हारा हारा,
पढ़े लिखे को देख रहा हूँ
दर दर फिरते मारामारा;

अपनी हँसी उड़ाता कोई
जब जीवन का धन खोता है।

हर मानव को देख रहा हूँ
मुँह पर दो दो रूप सजाये,
कागज के नोटों पर लट्टू
सोच रहा कैसे क्या पाये ;

घबराये बेसुध मानव का
एक बरस एक दिन होता है।
बाहर से हँसता हूँ लेकिन
भीतरभीतर मन रोता है॥