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भीतर-भीतर / ध्रुव शुक्ल
Kavita Kosh से
बाहर का उगा पेड़
भीतर उगता है
उखड़ता है कई बार जड़ से
बाहर की धधकती आग
धधकती है भीतर
बुझाने को बाहर की आग
बुझ-बुझ कर धधकती है
धधक कर बुझती है भीतर की आग
फैलती जा नहीं पाती बाहर नहीं भड़कती