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भीतर अभी भी तुम हो / आलोक कुमार मिश्रा

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मेरी आत्मा के परकोटे पर
ये जो उड़ रहे हैं सफ़ेद कबूतर,
मेरी मुक्ति के नहीं
तुम्हारी चाहना के सूचक हैं।

हृदय के कूप से
जो उठ रहा है हूक का स्वर,
बिछोह में पड़े पपीहे की टेर नहीं
स्मृतियों के कोयल की मीठी कूक है।

झुक रहे कंधों पर
ज़िदगी के कारनामों की फेहरिस्त है,
पलटना समय मिले तो
इसमें तुम्हारी स्याही से लिखा हर एक हर्फ़ है।

जब लौटना तब मत देखना
आँखों के नीचे लटककर बुझ चुके इन दो चाँदों को।
भीतर अभी भी तुम हो पूनम के उजास सा,
ये तो जलते हुए दीये के नीचे का तमस है।