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भीतर और भीतर गए तो देखे ये मंजर / सांवर दइया
Kavita Kosh से
भीतर और भीतर गए तो देखे ये मंजर।
हर चेहरा मायूस था वहां हर आंख थी तर।
दिन भर दौडती-हांफती रहती हैं कुछ सांसें,
फिर भी देखी नहीं फस्ले-बहार जाती उधर!
कहीं डेरे डाले बैठी थी धूप सदियों से,
कहीं छांव चलती मिली, दूर से ही बतियाकर।
खुश हुए कल ले इजाज़त आकाश नापने की,
आज गिरते पखेरू मौसम के हाथों पिटकर!
पता नहीं किस दिन के लिए सब चुप बैठे हैं,
हवा की दीवारों पर आकाशी छत लिये घर!