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भीतर का मौसम / संतोष श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
जब ऋतुएँ कोण
बदलती है
भीतर का मौसम भी
तेजी से बदल जाता है
मन की चिकनी
जमीन पर
जंगली घास के
झुरमुट उग जाते हैं
तिथियाँ गुजर जाती हैं
बसंत नहीं आता
अकुला जाते हैं पौधे
फूलों की दस्तक सुनने को
शिराओं में बजती है
उतरते शरद की
खंखड़ हवाएँ
मन में पतझड़ के
टूटे पत्ते
घायल पंछी के
पर से फड़फड़ाते हैं
अपने ही भीतर के
समंदर के
नीचे की जमीन के
डिस्क खिसक जाते हैं