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भीतर बैठा आदमी / महेश कुमार केशरी

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बचपन में हमें जोर देकर
बोलने के लिए प्रेरित किया
जाता है

और हम पहचानने लगते हैं
बोलकर वर्णों, को, क से
कलम ख, से खरगोश...

वर्ण के बाद अक्षर से
साबिका होता है, नदी,
पेंड़, पहाड़, झील, दरिया,
धीरे-धीरे हम सब समझने
और, बोलने
लगते हैं...

एक खास उम्र तक हमें ये
सीखाया जाता है कि जो,
कुछ बोलना है उससे पहले
सौ बार सोचो क्योंकि तीर-
कमान से और बात जुबान
से निकलने के बाद
कभी वापस नहीं होते...!

अफसोस इस बात का रहता है
कि उस वक्त जब हमें ये समझाया
जाता है कि क्या बोलना है...?
और कितना बोलना है उस वक्त
हमें ये बात समझ नहीं आती
और, इसे हम मजाक में
उड़ा देते हैं

लेकिन, एक खास उम्र में
पहुँच कर
धीरे-धीरे कम बोलने की
पड़ने लगती है...आदत

ऐसा नहीं है कि आदमी के अंदर
बोलने की चाह नहीं उठती
या वह बोला नहीं सकता

लेकिन, वह बोलने की सोचता
है, तभी उसका हाथ पकड़ लेता
है, उसके ही अंदर बैठा कोई एक आदमी ...!

और, वह चाहकर भी नज़र अंदाज
करता जाता है सामने वाली की बात...