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भीतर बैठें तो नश्तर-सी यादें होती हैं / सांवर दइया

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भीतर बैठें तो नश्तर-सी यादें होती हैं।
बाहर निकलते ही अब वारदातें होती हैं!

जलसे सजते हैं यहां, हम वे रू-ब-रू हों,
कैसे मिले, जब बीच तनी कनातें होती हैं!

उनकी हमारी मुहब्बत का है यह रूप नया,
जहां मिलें, पत्थरों से मुलाकातें होती हैं!

जिस दिन से शुरू किया खेल अंगारों का, सुना है-
उनकी बज्म में अब हमारी बातें होती हैं!
 
सूरज हां भरे आने की, और फिर भोर न हो,
बता, ऐसी कौन-सी काली रात होती हैं?