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भीतर सें करथौं आघात / कैलाश झा ‘किंकर’

खैथों-पीथौं साथे-साथ।
भीतर सें करथों आघात॥

मुखड़ा पर जेहनऽ नकाब छै, लागै लोगवा लाजवाब छै
पोर-पोर काँटऽ सें भरलऽ, रूप-रंग में उ गुलाब छै

सटलहो जखने ओकरा में तों
लानथों विपदा के सौगात।

अंग-अंग में जहर भरल छै, तनिक सुधा सँ ठोर गढ़ल छै
साथी नै बनबऽ तों ओकरा, ओकरे कारण फेर लगल छै

फुलते-फलते रहै बाग ई
आबे आँख में बरसात।

बसें बेसी द्वेष-भावना, उलझल छै साहित्य-साधना
आगू जों बढ़भो ते मिलथों, डेग-डेग पर सिर्फ वेदना

लेखक के दुश्मन छै लेखक
अपने के मानै निष्णात।


फीकऽ साहित्यिक अधिवेशन, कुटिल चाल कुत्सित सप्रेशन
ओजहा-गुणी के मंतर सें, सरस्वती-सुत में डिप्रेशन

गुटबाजी के कारण आबे
कवि-लेखक के जाय छै जात।
खैथों-पीथौं साथे-साथ।
भीतर से करथौं आघात॥