भीतर है पुरवाई / अवनीश त्रिपाठी
तकनीकी युग में नैतिकता
होती हवा हवाई
पश्चिम की आँधी शहरों से
गाँवों तक है आई
संस्कार की भाषा बदली
परम्परा की थाती,
नूतनता की कड़ी बोलियां
कूट रही हैं छाती
चलचित्रों की ओछी हरकत
से किशोरमन बदला
मोबाइल के अंधकार में
खोई है तरुणाई
बहुत आधुनिक होने के अब
होते रहते नाटक
शर्म और संकोच पुरातन
घोषित हुए कथानक
पीढ़ी नई नहीं सुनती अब
ज्ञान ध्यान की बातें
अंतर्जाल,फेसबुक,ट्वीटर
की गहरी परछाई
पक्के घर में खुल्लम-खुल्ला
खिड़की और झरोखे,
बढ़ती सीलन बूढ़ा सूरज
कैसे कितना सोखे
धूप तिकोनी,परछाईं से
बातें करती रोती
बाहर पछुआ भले चल रही
भीतर है पुरवाई
बेलगाम हो चुकी समस्या
बौने संवेदन से
टुकड़े-टुकड़े बाँट रहे हम
खुशियाँ भी बेमन से
मंगल और मिसाइल में ही
सिमटी दुनिया सारी
नेहभरे अनुबन्ध बिचारे
कैसे लें अँगड़ाई?