भीष्म की प्रतिज्ञा / श्वेता राय
हाय! नियति की कैसी माया, क्या उसकी मनमानी है।
इक निषाद की पुत्री ने क्या, बात हृदय में ठानी है॥
व्याकुळ रहते पिता हमेशा, नित वो अश्रु बहाते हैं।
आह! पुत्र हूँ मैं हतभागी, व्यथा कहाँ कह पाते हैं॥
हे शुभ्रा! तुम कह दो अपनी, जो भी है इच्छा सारी।
हट जाए बदली विषाद की, घिरती आती जो कारी॥
निश्चय अपना अब तुम बदलो, पिता हृदय को हरसाओ।
कर स्वीकार विवाह निवेदन, अंतस आनन महकाओ॥
बातें सुन सब देवव्रत की, सत्यवती तब है बोली।
बन भी जाऊँ रानी लेकिन, रहेगी खाली ये झोली॥
तुम हो गंगा पुत्र सुनो ये, राज्य तुम्हारा ही होगा।
मेरे जाये पुत्रों का कब, यहाँ कभी कुछ भी होगा॥
बही व्यथा की तीक्ष्ण लहर इक, सुन के ये बातें सारी।
बोल उठे देवी तुमको मैं, एक वचन देता भारी॥
सूर्य चंद्रमा जब तक चमके, अटल रहेगी ये वाणी।
अटल घूमती धरती जैसे, जैसे बहता है पानी॥
पुत्रधर्म से बड़ा जगत में, कब कोई है धर्म हुआ।
काम पिता के जीवन आये, धन्य हमारा कर्म हुआ॥
साक्षी बन कर सुनो जगत् ये, सुन लो नभ जल के वासी।
नही बधेंगे सात वचन में, जीयेंगे बन वनवासी॥
डोली धरती डोला अम्बर, सुनकर प्रण की ये बातें।
समय चक्र ने चुपके से अब, कर दी हैं अपनी घातें॥
शांतनु सुन ये विकट प्रतिज्ञा, मन ही मन थे घबराये।
बोले दुःख की गहरी लहरी, साथ हर्ष के क्यों लाये॥
सुनो पुत्र ये कठिन तपस्या, जग में तुमको देगा मान।
जब तक चाहो मृत्यु न आये, देता हूँ मैं ये वरदान॥
शपथ एक ऐसा धारण कर, सत जीवन तुम पाओगे।
कभी हुआ कब होगा ऐसा, भीष्म तुम्हीं कहलाओगे॥
ऐच्छिक जीवन पाओगे
द्वेष कपट नहि लाओगे
भीष्म सदा कहलाओगो
सुनो पुत्र! ये कठिन तपस्या, तुम ही बस कर पाओगे...