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भुइँया सरग बनि जाई / अविनाश चन्द्र विद्यार्थी
Kavita Kosh से
आई, उहो दिन आई, अन्हरिया राति पराई
लीही अकासे छाई, किरिनि धरती पर धाई
कठमुरकी कन-कन के छूटी
सकदम साँस-साँस के टूटी
लीही पवन अँगडाई, गमक वन-वन छितराई
चह-चह बोल चुचूहिया बोली
जबदल कंठ मुरुगवा खोली
भँवरा पराती गाई, कली के मन मुसुकाई
डगर-डगर तब होई दल-फल
निसबद रही पाई ना जल-थल
जगरम घर-घर समाई, नगर में सोर सुनाई
भायी मोर, नयन ना निहँसी
धूमिल मुँह अँजोर में बिहँसी
भूँइया सरग बनि जाई, सुदिन तब साँच कहाई