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भुलावा / अंजना टंडन

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ऐसा विज्ञान
जो चित्त की वृत्ति का रसायन
प्रेम से बदल कर
घृणा कर दे
ये तो बुद्धि ने कभी नहीं चाहा होगा,

ऐसे पदचिन्ह
जो जंग के मैदानों से होकर
कल के आँगन में
रक्तिम छाप छोड़े
ये तो सभ्यता ने कभी नहीं चाहा होगा,

ऐसी शंखध्वनि
ईराक, ईरान, सीरिया के आगे
काश्मीर की घाटियों को
रूदाली के गीतों से जगाए
ये तो ऊपर वाले ने भी नहीं सोचा होगा ,

खुशनसीबी है ये हमारी तुम्हारी
कि हमारे पास
खुद के जमीर से बचने के लिए
प्रेम कविताएँ हैं
जिसमें बसा है हमारा संसार,

वहीं रह देखते हैं बाहर
जैसे आग की लपटों में घिरा कोई पराया नक्षत्र हो
पसलियों के दर्द को छाती में दबा
उठा लेते है कलम
और लिखते हैं
एक सौ सोलह च़ाँद
और एक उसके क़ाँधे का तिल,

कोई फफक कर कहीं रो पड़ता है।