1
न जाने कहाँ किस लोक में आज, जाने किस
सदाव्रत का हिसाब बैठे तुम लिख रहे होगे (अपनी
भवों में?) - जहाँ पता नहीं प्राप्तप भी होगा
तुम्हेंं कोरी चाय या एक हरी पुड़िया का बल
भी? ...हिसाब; मसलन्: ताड़ी कितने
की? - कितने की देसी? - और रम?
कितनी अधिक-से-अधिक, कितनी कम-से-
कम? कितनी असली, कितनी...।
(इनसान रोटी पर ही जिंदा नहीं: इस
सच्चानई को और किसने अपनी कड़ुई मुसकराहट -
भरी भूख के अंदर महसूस किया होगा
एक तपते पत्थंर की तरह, भुवनेश्वईर,
जितना कि तुमने!)
2
फिर फ्रेम से उतरकर सांइडार-अंगों की
अपनी अजीब-सी खनक और चमक लिये
गोरी गुलाबी धूप
एक शोख आँख मारती-सी गिरती है
मौन एकांत... किसी सूने कारिडार में या र्इंटों
के ढेर पर या टपकती शराब के पसीने-सी
आसानी छत के नीचे,
कहीं भी, जहाँ तुम बुझी-बुझी सी अपनी गजल-
भरी आँखों में
अनोखे पद एजरा पाउंड के
या इलियट के भाव वक्तकव्यी
पाल क्ली के-से सरल घरौंदें के डुडूल्सग में
सँजोकर
दियासलाइयों और बिजली के तार से सजाकर,
अखबार के नुचे हुए
कागजों से छाकर, तोड़ देते होगे,
सहज, नये मुक्ता छंदों की तरह, और
हँस पड़ते होगे निःसारता पर इस कुल
आधुनिकता की।
3
'भूले हैं बात करके कोई'...
'भूले हैं बात करके कोई
राजदाँ से हम!'...
'अल्लेह री नातवानी' कि हम... हम -
'दीवार तक न पहुँचे।'
'रऽम - रामा - हो रामा - अँखियाँ
मिलके बिछुड़ गयीं...
अँखिया...!'
4
ओ बदनसीब शायर, एकांकीकार, प्रथम
वाइल्डियन हिंदी विट्, नव्वाीब
फकीरों में, गिरहकट, अपनी बोसीदा
जंजीरों में लिपटे, आजाद,
भ्रष्टं अघोरी साधक!
जली हुई बीड़ी की नीलिमा-से रूखे होंट ये
चूमे हुए
किसी रूथ के हैं -
किसी एक काफिर शाम में
किसी
क्रास के नीचे...
वो दिन वो दिन
अजब एक लवली
आवारा यूथ के हैं जो
धुँधली छतों में, छितरे बादलों में कहीं
बिखर गये हैं, वो
खानाखराब शराब के
शोख गुनाहों-भरे बदमाश
खूबसूरत दिन! वो
एक खूबसूरत सी गाली
थूककर चले गये हैं वहीं कहीं...
हाँ, तपती लहरों में छोड़ गये हैं वो
संगम, गोमती, दशाश्वैमेध के कुछ
सैलानियों बीच
न जाने क्याी,
एक टूटी हुई नाव की तरह,
जो डूबती भी नहीं, जो सामने ही हो जैसे
और कहीं भी नहीं!