भूकम्प - १ / शशिधर कुमर 'विदेह'
डोलै छै ई धरती, आ बरसै छै अकाश।
बीच फँसल प्राण, आइ दैबो केर ने आश॥
खसलै जे पाथर पैघ, पहिने-दू-राति।
अन्हर-बिहाड़ि-पानि, बुड़लै जजाति॥
काल्हिए तँऽ बहल रहए, पवन उनचास।
मिलि-जुलि कएने रहए, बड़ उक्पात॥
आइ-ई की भेलै ! धरती काँपै छै गे दाइ !
अप्रीलक पच्चीसम दिन, बिसरब ने भाइ॥
दू हजार पनरह ईश्वी, दुपहरिया केर बेर।
बेरि–बेरि काँपए धरती, बिधना केर खेल॥
काठमाण्डू भेल उजड़ी-उपटी, ढेरी छै लहास।
अपनाकेँ ताकए-चिन्हए, ककर छै सहास?
बाँचल जे-सोचि रहल, करबै की आब?
ककरा लए जिउब हम, ककर छै आश॥
महल-अटारी-घऽर, गहना आ गुड़िया।
के देखए ? काटए सब, प्राणक अहुरिया॥
भागि कऽ तँऽ एलै सब, ठाढ़ देखू पड़ती।
सोचि रहल, करबै की-फटतै जँ धरती !!
दिन भरि बीति गेलै, रातिमे की करबै।
घऽरक ने साहस होइए, बाहरेमे रहबै॥
बाहरो अकाशसँ, रहि-रहि झहड़ए।
क्षण-क्षण बीतए प्राण, मोन सेहो हहरए॥
कतेक जतनसँ जे, महल बनओलियै।
छोड़ि-छाड़ि सभटा, जान लऽ पड़एलियै॥
ईश्वरक माया सभ, अपना की हाथमे?
अड़जल-सिरजल, किछु नञि साथमे॥