काव्य-पँक्तियों पर चीखता है
दो दिन से भूखा एक तोतला बच्चा
और बिलख उठतीं कितनी ही माँएँ
पँक्तियों के शब्दों पर ।
जबकि शब्द भी इसी परिवेश के हैं,
यूरोप-अमरीका से नहीं आए हैं
किसी महासागरीय धारा की
पीठ पर सवार होकर ।
शब्दों से परिचित हैं
तमाम तोतले बच्चों के आधे-अधूरे पिता
जो हालात और ईमानदारी की
दोहरी मार झेल रहे हैं,
सुबह-शाम करम का लेखा मिटाते हुए
भाग्य से खेल रहे हैं ।
झाँकते कविता की लकीरों में से
छन्दों की पीरों में से
अनेक तोतले बच्चों के
अनेक बिखरे परिवार ।
खोल देते
ममता की खिड़कियाँ,
दर्द का रोशनदान,
और समर्पण का बहुत बड़ा दरवाज़ा ।
जा बैठती कविता
जिसकी घिसी-पिटी चौखट पर ।
सुनती रहती चीख़
भूखे तोतले बच्चे की ।