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भूखा पेट ग़रीब का / रमेश रंजक
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सच कहना कितना खाता है
भूखा पेट ग़रीब का ।
साँझ ढले तक अपनी काया
झूठी-सच्ची दया-दिलासा
अधनंगी फटकार देह पर
फिर भी रहता भूखा-प्यासा
रात-रात भर पछताता है
भूखा पेट ग़रीब का ।
चार साल में भरी जवानी
आठ साल में खेत रहन के
फिर आधी ज़िन्दगी बेचकर
मना रहा देवता दमन के
कितना-कितना घबराता है
भूखा पेट ग़रीब का ।
देह बहू की, लाज सुता की
डस जाती जब नीच हवेली
आँख झुकाकर, साँस खींचकर
अब तक इसी पेट ने झेली
मुट्ठी बाँध कसमसाता है
भूखा पेट ग़रीब का ।