भूखा / निकअलाई निक्रासफ़ / हरिवंशराय बच्चन
खड़ा हुआ है कृषक सामने
दुख-द्रवित हैं उसके दृग,
ज़ोर-ज़ोर से सांसें चलतीं
डगमग-डगमग करते पग ।
वह अकाल-पीड़ित है, खाने
को पाता पेड़ों की छाल,
घोर कालिमा सुख पर छाई
काया है केवल कंकाल ।
अन्तहीन कष्टों ने उसको
कुचल दिया, कर दिया विमूक,
उसकी आँखें पथराई हैं
और हृदय उसका सौ टूक ।
धीमे चलता जैसे कोई
ले पलकों पर निद्रा-भार,
वह जाता उस ओर जहाँ पर
उसकी बोई हुई जुआर ।
रखता है अपने खेतों के
ऊपर अपनी अपलक डीठ,
और खड़ा होकर गाता है
एक बिना स्वरवाला गीत ।
"ओ जुआर के खेत, उगो तुम,
जल्दी-जल्दी पको, बढ़ो,
और जोतने, बोने, सिंचित
करने का श्रम सफल करो ।
मुझे एक रोटी दो, जिसकी
नाप न मुझसे हो पाए,
मुझे एक रोटी दो, जिससे
सारी पृथ्वी ढक जाए ।
सबकी सब मैं खा जाऊँगा,
क्यों छोड़ूँगा कण भर भी,
नहीं भूख ने छोड़ी ममता
बीवी औ’ बच्चों पर भी !"
अँग्रेज़ी से अनुवाद : हरिवंशराय बच्चन
और अब यह कविता मूल रूसी भाषा में पढ़ें
Николай Некрасов
1851 г.