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भूख, रोटियाँ, चूल्हा, माटी / दिनेश शुक्ल
Kavita Kosh से
भूख, रोटियाँ, चूल्हा, माटी
अँतड़ी, ऐंठन, आग, धुँआती।
हँसे माफिया, भौचक सांसद
प्रजातंत्र में सभी बराती।
बैनर, झंडे, भाषण, रैली
भीड़, नुमाइश, ठकुर-सुहाती।
मरा नमक पारे की बस्ती
ग्लोबल युग, पूँजी मुस्काती।
पानी घर, मछली के सौदे
नदिया, किसको दुख बतलाती।
हत्या, भय, आतंक, हादसे
खुद अपनी परछाई डराती।
पृथ्वी दुख का गणित बनी थी
ईश्वर, सुनता रहा प्रभाती।