भूख का गणित / औरत होने की सज़ा / महेश सन्तोषी
घर में किसी ने नहीं किया था
आज खाने को मना
फिर भी हमारे घर में सुबह से आज खाना नहीं बना!
स्थिर ही बने रहे रसोई के सारे बर्तन
चूल्हे के आसपास भूख मँडराती रही
खुली आँखों से हम देखते रहे रोटियों के सपने
आँख बन्द की तो रोटियों की याद आती रही
आती तो आती कहाँ से, रसोई से, कोई खुशबू
बिना आटा-दाल के भी कहीं पकता है, किसी का खाना?
घर में किसी ने नहीं किया था आज खाने को मना...
फिर भी हमारे घर में सुबह से आज खाना नहीं बना!
अभावों की गिनतियाँ करती सो नहीं पाई कई रातें
अभावों की पीठ पर ढोते हम गिनते रहे दिन
भूख के गणित से बढ़कर कहाँ होता है कोई गणित?
हमारे हिस्से में रहीं बहुत सी भूखी रातें
बहुत से भूखे दिन आज की उम्मीदें भी ठहर गयीं सरहदों पर
जाने हमारे हाशिये में हो न हो
कल फिर पेट भर खाना घर में किसी ने नहीं किया था
आज खाने को मना
फिर भी हमारे घर में सुबह से आज खाना नहीं बना!