भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भूख की खाईयाँ / औरत होने की सज़ा / महेश सन्तोषी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अभावों से भरे घर में
छतें छूकर ही रह गई
सपनों की सरहदें
पर हम हाथों से
नहीं छुपा सके
अपना भरा-भरा शरीर
भूख की खाईयों में
सिमट कर रह गईं
मन की उमंगों की हदें
अंगों की पीर
देखते-देखते थक गई आँखें,
रोज़ के राशन की व्यवस्थाएँ
पर हमसे अनदेखे भी नहीं रह पाते
अपने ही अंग
हम तो पौंछ तक नहीं पाते
दोपहरी में,
पसीने में लत-पत तन,
हमारा भी मत था,
कभी उड़ते साँझ-सुबह
हवाओं के संग
दूर तक कहीं नहीं दिखते
सिन्दूर से रंगे,
सुहाग से क्षितिज
पर हमारे सामने से रोज गुजरती तो है,
सुहागनों की भीड़...अंगों की पीर
फूलों की बस्तियों में हो या झोपड़ियों में
देह तो समय पर, खिलती ही है,
चढ़ती उम्र में बहारे अभी
गरीबों से कतराकर नहीं जाती,
हमें लगता है तो, अपनी उभरी देह पर
फूलों जैसा कुछ दबाव
ऐसा कैसे होता और कि बहार आती और
देह में बजती बांसुरिया
हमसे अनसुनी ही रह जाती
डरते हैं कहीं कोई छीन ना ले
हमारे हिस्से का गुलाल, हल्दी,
मेहंदी, सुहाग की बिन्दी
कहीं कोई खरीद ना ले,
हमारे हिस्से का अबीर
अंगों की पीर...