भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
भूख है यहां भी / ओम पुरोहित ‘कागद’
Kavita Kosh से
अकाल है
नहीं है आस जीवन की
पलायन कर गया है
समूचा गांव ।
मोर
आज भी बैठा है
ठूंठ खेजड़े पर
छिपकली भी रेंगती है
दीवारों पर
और
वैसे ही उड़-उड़ आती है
चिड़िया कुएं की पाळ पर ।
भूख यहां भी है
है मगर देखने की
एक आदम चेहरा ।